पत्र ही नहीं, शत्रु भी
दैनिक जागरण लखनऊ
संस्करण 7जुलाई को टूटती हदे शीर्षक से मुरादाबाद के मुद्दे पर संपादकीय में अखबार
की आस्था साफ तौर पर परिलक्षित होती है. इसमें कहा गया कि आस्था से जुड़े प्रश्न
पर पुलिस और प्रशासन के लोग संवेदनहीनता से काम किया. उन्हे यह प्रशिक्षण दिया
जाना चाहिए कि आस्था के सवाल पर हमारी भूमिका कैसी हो ? यहां मतलब धार्मिक आस्था से है. सवाल है पुलिस
की किस धर्म की आस्था का प्रशिक्षण दिया जाय ? क्योकि मुस्लिम
आस्था,बौद्ध आस्था, हिन्दू आस्था, सिक्ख आदि अनेक
आस्थाएं हैं. हालांकि अखबार यह संकेत सभी धर्मो के लिए दे रहे हैं. पर दैनिक जागरण
के सभी क्रिया कलाप उक्त तथ्य पर विश्वास नही करने दे सकता है. इस अखबार द्वारा
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में होने वाली प्रगतिशील छात्रों के कार्यक्रमों में बहुत
ही सचेत तरीके से अनदेखी की जाती है. यह उदाहरण कई बार मैंने भी महसूस किया है. मुजफ्फरनगर
की घटनाओं के संदर्भ में मानवाधिकार कार्यकर्त्ताओं ने कई बार सवाल खड़ा किया है,
वहा के भाजपा के एक महापंचायत का कुफल हम भोग रहे हैं. जहां भाजपाईयों द्वारा
ट्रेन और बसे तोड़ी गई लेकिन जागरण ने इसे बहुत हल्के तरीके से लिखा. जो दिखावा
मात्र लगता है. जब इस मामले पर जागरण को फोन किया तो सुनने के बजाए यह कहकर फोन
काट दिया गया कि आप की बात लंबी है लिखकर भेजिए. जागरण का संपूर्ण लेख जनवादी
परंपरा को विकृत करता है. हम जागरण के इस कुकृत्य को निंदनीय और घटिया दर्जे की
हरकत समझते हैं.
-राजन विरुप की
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