जन संस्कृति यात्रा 2013 एक
रिपोर्ट
संस्कृति एक ऐसी विरासत जो कभी
ख़त्म नहीं होती है प्राचीन काल से लेकर आज तक संस्कृति का अपना खाश
महत्त्व रहा है अतिथि देवो भवः की परम्परा,
साधू संतो को भिक्षा देने की
परम्परा, न जाने कितनी असीमित संस्कृतियां हमारे देश में मौजूद है। कुछ इसी प्रकार की संस्कृति की खोज करने , लुप्त होती संस्कृतियों को समाज के बीच लाने के उद्देश्य से हमने जन
संस्कृति यात्रा लेकर चले जिसकी शुरआत हमने साझा संस्कृति के प्रतीक
अयोध्या के राम जानकी सरयू कुञ्ज मंदिर से की॰कई संस्कृतियों का एक जीता जागता
उदारहण है जहाँ राम और रहीम एक साथ बैठकर खाते है। हमारा उद्देश्य था ग्रामीण
संस्कृति और ऐसी संस्कृति जो आज भी साहित्य और मीडिया की नजर से अछूती
रह गयी है। अपनी यात्रा के कुछ ऐसे ही अनुभवो हम आपके साथ संझा कर रहे है। आशा है
आप सभी इसे पढ़ाकर रोमांचित होंगे।इस यात्रा को राजीव गांधी मेमोरियल एजुकेशनल एंड चेरिट्बुल ट्रस्ट
,आशा ट्रस्ट कैथी वाराणसी,सर्वधर्म
सद्भावना केंद्र ट्रस्ट नई दिल्ली एवं अयोध्या की आवाज़ के साझे प[रायस से निकाला गया
था जिसका नेतृत्व सामाजिक कार्यकर्ता युगलकिशोर शरण शास्त्री ने किया। यात्रा मे के
एम भाई कानपुर,उर्मिला शुक्ल रायपुर,प्रमिला
वर्मा,दिव्या वर्मा,मुन्नालाल शुक्ला,राना खातून और कैलाशा देवी शामिल थी।
यात्रा के सिलसिलेवार अनुभव -
कबीर समाधि स्थल मगहर - उत्तर प्रदेश के संत कबीर नगर के मगहर में स्तिथ कबीर मठ हमारे
अध्ययन का पहला केन्द्र रहा यह वो स्थल जहाँ कबीर ने अपने घुमक्कड़ जीवन
को विराम देते हुए समाधी ली थी । संत कबीर जिसने अपना सारा जीवन धर्म और मजहब
से ऊपर उठकर मानवीय मूल्यो के लिए समर्पित किया। अपने
ज्ञान और वाणी ने सारे जहाँ
को एक सूत्र में पिरोने का काम किया।
ऐसे स्थल को करीब से देखना हम सभी के
लिए किसी सौभाग्य से कम नहीं, यहाँ हमे इंसानी
मूल्यो पर आधारित संस्कृति
की झलक देखने को मिली। समाधी स्थल के महंत विचार
साहब और उनके सहयोगियो द्वारा हमारा स्वागत किया गया। भारतीय संस्कृति के
अनुरूप मिष्ठान और जल के साथ हमने अपने परिचय एक दुसरे के साथ साझा किये। इसके बाद स्कूली छात्राओ के साथ एक वार्तालाप कार्यक्रम आयोजित हुआ
जिसमे यात्रा के संयोजक युगलकिशोर शरण शास्त्री जी ने यात्रा के उद्देश्य और उसके महत्त्व को समझाते हुए,लोक संस्कृति को सहजने की अपील की। कबीर समाधि स्थल के महंत साहब ने कबीर को लोक संस्कृति का संरक्षक बताते हुए वर्तमान
समय में कबीर चिंतन की आवश्यकता पर प्रकाश डाला। यात्रा के साथियो अपने अपने
विषय पर छात्राओ के साथ बात की समाधी और मजार की मिली जुली
परम्परा को जीता जागता यह स्थल इस बात का प्रमाण है कि 21वी सदी के इस आधुनिक युग में कबीर आज उतना ही प्रासंगिक है
जितनी तकनीक। बस जरूरत है तो उसे समझने और अपनाने की । जिन पंक्तियो ने हमें सबसे ज्यादा प्रभावित किया -
पड़री गांव कुशीनगर - मगहर में दोपहर भोजन लेने के बाद हम कुशीनगर के लिए बढ़ चले और
देर शाम होते होते हम कुशीनगर के पड़री गांव पहुंचे। पड़री गाँव कुशीनगर
के पट्रौना ब्लॉक में पड़ता है। जहाँ आज भी जाति और वर्ण व्यवस्था जैसी
प्रथाए चल रही है शिक्षित लड़कियों अनुपात कम है किसानी और मजदूरी यहाँ
का मुख्या पेशा है। कुछ युवा कार्यकर्ताओ द्वारा मिल जुल कर एक राजपति
देवी समाज कल्याण मिशन नामक एक अनौपचारिक अध्ययन केंद्र चलाया जा रहा है जहाँ आस
पास गांव के 100-150 कव करीब बच्चो के लिए निशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की जाती है
यह एक सराहनीय प्रयास है इन युवाओ और स्कूली बच्चो के साथ एक
मुलाकात का कार्यक्रम रखा गया । सभी युवा शास्त्री
जी को सुनने के लिए बेताब थे। इसलिए
शास्त्री जी ने यात्रा के उद्देश्यों के साथ साथ उनके साथ अपने
जीवन अनुभव भी सांझा किये। हिंदी प्रोफ़ेसर उर्मिला शुक्ल जी ने भी प्राचीन भारतीय संस्कृति से सम्बंधित कुछ रोचक तथ्य बताये। युवाओ ने भी अपने विचार
रखे। यहाँ की पूरी व्यवस्था सामाजिक कार्यकर्ता केशव चन्द्र वैरागी जी द्वारा की गयी ।
थावे मंदिर गोपालगंज - रात्रि विश्राम कुशीनगर में कर अगली सुबह हम गोपालगंज के लिए निकले। यहाँ
से हम लोग दो गाड़ियो में सिफ्ट हो गए क्योकि एक गाड़ी में सामान
के साथ बैठ नहीं पा रहे थे इस वजह से हमे कुछ विलम्ब का सामना करना पड़ा ।
लेकिन गोपालगंज का सफर हमारे लिए आसान नहीं था रास्ते के उतार चढ़ाव ने सभी
साथियो हिला कर रख दिया। सारे रास्ते हम बिहार सरकार की उपलब्धियों और कमियों
के बारे में बात करते रहे और शाम होते होते हम गोपालगंज पहुँच गए। पर शायद
गोपालगंज यहाँ पर जो आयोजक थे उन्होने किसी अपरिहार्य करणो से यहाँ
कार्यक्रम को रद्द कर दिया जिस कारण हम गोपालगंज में कही भ्रमण कर सके
रात्रि विश्राम के लिए हमे एक गेस्ट हाउस में किया और सुबह हम थावे देवी के मंदिर
होते हुए मुजफ्फरपुर के लिए निकल गए ।
चम्पारण बिहार - गोपालगंज के कड़े अनुभव को भुलाकर हम मुजफ्फरपुर
के रास्ते पर चलते चलते अपने आपसी अनुभवो की गुफ्तुगू में मशगूल थे।
सब एक दूसरे की ठिठोली कर रहे थे और पता नहीं किस मोड़ पर
हमारी बात गांधी जी पर पहुँच गयी और तभी
एक साथी ने बताया कि गांधी ने
अपना पहला सत्याग्रह चम्पारण बिहार में ही किया था जो कि हमारे
रास्ते पर ही था जैसे ही यह बात पता चली ।
सभी साथी चम्पारण देखने के लिए उत्सुक
हो गए और संयोग भी देखिये कि हमने एक अजनबी से रास्ता पूंछा और वो हमारे साथ चलने को तैयार हो गए तो फिर क्या था अब तो चम्पारण की और हम बढ़ चले। बातो ही बातो में उन अजनबी भाईसाहब ने बताया कि वे होम्योपैथी
चिकित्सक है और अपना एक क्लीनिक चलाते है। चम्पारण पहुँचाने से पहले उन्होंने
हमें बिहार की संस्कृति , बिहार की राजनीति ,
शिक्षा व्यवस्था , उत्पादन , अपराध आदि विषयो पर बहुत सी बाते की । और अंततः 80 कि मी की दूरी तय
करने के बाद हम गांधी के चम्पारण पहुँच ही गए। जैसा कि हम सभी जानते है कि
गांधी जी ने 1916 में किसानो और मजदूरो की आवाज उठाने के लिए पहला सत्याग्रह
किया था । यहाँ पर गांधी जी की एक विशाल मूर्ती ( बैठे हुए ) और गांधी
संग्रहालय की स्थापना की गयी है। हम सभी ने इस स्थान को अपने यादो में शामिल
करने के लिए कुछ यादगार फ़ोटो खिंचवाए।
एस आर ए पी इंटर कालेज एवं महाविधालय
मुज्जफरपुर - मोतिहारी
से हम अपने अपने अगले पड़ाव के लिए मुजफ्फरपुर के बारा चकिया में स्तिथ शिवादेनी
राम अयोध्या प्रसाद महाविधालय पहुंचे । यह पड़ाव भी हमारी यात्रा के लिए काफी
महत्वपूर्ण रहा । यह एक ऐसा पड़ाव है जसने बचपन के दो यारो को एक बार फिर से मिला
दिया। जी
शास्त्री जी और के हरि नारायण ठाकुर जी
दोनो बचपन के मित्र है जो एक ही कालेज में साथ साथ पढ़ते थे । और एक लम्बे अर्से के
बाद इस यात्रा के जरिये मिले। यहाँ पहुँचने पर महाविधालय के प्रधानाचार्य श्री हरी
नारायण ठाकुर एवं विधालय के समस्त अध्यापक गणो द्वारा पूरी गर्मजोशी के साथ हमारा
स्वागत किया गया और बहुत आदर सम्मान के साथ बैठाया गया । अध्यापको के साथ परिचय
मिलन के बाद हमने विधालय के छात्र छात्राओं के साथ जन संस्कृति विषय पर एक गोष्ठी
भी की जिसमे शास्त्री जी ने अपने जीवन परिचय के साथ
यात्रा के महत्त्व और उसके उद्देश्य को छात्र छात्राओ के सामने रखा । यात्रा की एक
अन्य साथी राना खातून जी ने छात्र जीवन की दिशा और लक्ष्य पर बोलते हुए छात्रो से
अपनी संस्कृति को सहजने और सवारने की अपील की । कार्यक्रम के आयोजक एवं महाविधालय
के प्रधानाचार्य हरी नारायण जी ने संस्कृति को आम जन मानस के जीवन से जोड़ते हुए
उसके महत्त्व पर प्रकाश डाला और यात्रा को संस्कृति संवर्धन का महत्वपूर्ण अंग
बताते हुए यात्रा के सभी साथियो का उत्साहवर्धन भी किया । आज रात्रि का भोजन और
विश्राम हमने विधालय परिसर में ही किया। आज की सुव्यवस्थित व्यवस्था के लिए श्री
हरी नारायण ठाकुर जी का बहुत बहुत धन्यवाद ।
केसरिया बुद्ध स्तूप - मुजफ्फरपुर में स्तिथ केसरिया का बुद्ध स्तूप विश्व ख्याति प्राप्त ऐतिहासिक स्थल माना जाता है, ऐसा कहा जाता है कि यह अब तक स्थापित बुद्ध स्तूपों में सबसे ऊँचा और अदितीय है इसे बिहार के सिर्फ पर्यटन स्थल के रूप में ही नहीं बल्कि मानवता के केंद्र के रूप में मान्यता मिली है । देश विदेश के पर्यटक इस स्तूप को देखने के लिए प्रतिदिन आते है । यात्रा के साथियों ने स्तूप के एतिहासिक महत्व और उसके निर्माण के सन्दर्भ में जानकारी हासिल की और सभी ने अलग अलग एंगिल से फोटुए भी खिचवाई। हमने यहाँ पर सैकड़ो पर्चे भी बांटे ।
मुसहर बस्ती - हम मुजफ्फरपुर के ग्रामीण क्षेत्रो
के दौरे के दौरान मुसहर जाति के लोगो के बीच भी गए । इनके बारे में कहा जाता है कि ये चूहा मार कर खाते है। इसके पीछे का कारण
इनकी भौगौलिक और आर्थिक स्तिथि है। गांव में घुसते ही हमें एक बाल श्रमिक विधालय
दिखा जो कि गांव के उन बच्चों के लिए है जो मजदूर वर्ग से है । वैसे यहाँ पर तो
सभी खेतिहर मजदूर है । आज भी गांव में मिट्टी के सुंदर सुंदर घर बने हुए है ।
श्रृंगार करना महिलाओ का पसंदीदा शौक है पूरे गांव में सिर्फ एक सोलर मोबाईल
चार्जर है। जिससे पूरा गांव अपना मोबाईल चार्ज करता है यह गांव की खासियत है । अगर
विकास और खुशहाली की बात करे तो आज़ादी के 67 सालो के बाद भी गांव आज भी अपनी
बदहाली के लिए रो रहे है मुसहर टोला की भी यही स्तिथि है । यात्रा के सभी साथियो ने मुसहर बच्चो के बीच
भी कुछ समय बिताया और अपने अपने ढंग से उनके परिवेश एवं परिस्तिथि के बारे में
बहुत सी चीजे जानने की कोशिश की । शास्त्री जी और रीना खातून ने मुसहर महिलाओ के
साथ बात की । मुजफ्फरपुर के साथियों को उनके सहयोग और
मेहमान नवाजी का शुक्रिया अदा करते हुए अपने अगले पड़ाव के लिए सीतामढ़ी के लिए निकल
गए ।
सीतामढ़ी बिहार - धार्मिक और ऎतिहासिक दृष्टि से सीतामढ़ी का अपना एक खास महत्त्व है । जहाँ एक तरफ लोगो की आस्था इससे जुडी है वही इसकी बनावट और इतिहास पर्यटको के शोध का विषय भी है । हमने यहाँ पर राम जानकी मंदिर , द्वारिका मंदिर , सीता द्वार आदि स्थलो पर भ्रमण करते हुए यहाँ के रीति रिवाजों को समक्षने की कोशिश की यहाँ हमने बहुत सारे पर्चे भी वितरित किये ।
नेपाल - सीतामढ़ी से निकल कर मेजरगंज गाँव के सहारे सोमबरसा सीमा से हम देर शाम नेपाल की सीमा के नजदीक पहुँच गए । चेक पोस्ट पर गाड़ी के कागजात चेक कराने और नेपाल में घूमने के लिए भंसार लेने के लिए हमारी गाड़ी कुछ देर के लिए रुकी । गाड़ी के ड्राईवर चेक पोस्ट पर गए और हम अदभुत प्राकृतिक सौंदर्य और साहचर्य संस्कृति को सहजती नेपाल की धरती के ख्वाबो में डूब गए । हम सब के अंदर एक अजीब सा रोमांच , उमंग और उत्साह भर दिया था पहाड़ो को पर चढ़ने , उन्हें नजदीक से देखने , छूने आदि इच्छाये हमारे मन में हिलोरे मार रही थी। नेपाल की संस्कृति , नेपाली भाषा , वहाँ के परिवेश , रहन सहन के तौर तरीके परम्पराए , मान्यताये न जाने बहुत सारी चीजे हम जानना चाहते थे । तभी ड्राईवर ने एकाएक बताया कि उन्होने तीन दिन का भंसार कटवाया गया है नेपाल घूमे के लिए और हमारी गाडी नेपाल के अंदर प्रवेश कर गयी । देर शाम हो जाने के कारण हमने नेपाल बॉर्डर के नजदीक मलंगवा शहर के समिक होटल को रात्रि विश्राम के लिए चुना ।
सुंदरपुर गांव - सुंदरपुर गांव मलंगवा से 15 कि मी की दूरी पर स्तिथ है यहाँ शास्त्री जी की बहन रहती है। शाम का कार्यक्रम और रात्रि का भोजन इस गांव में ही तय था पर हमें नेपाल पहुँचते पहुँचते देर शाम हो गयी थी । इसलिए जाना केंसिल माना जा रहा था। पर शास्त्री जी ने कहा कि हम वहाँ चलेंगे सुंदरपुर जाने के लिए काफी गतिरोध था जैसा कि स्थानीय लोगो ने बताया कि सुंदरपुर एक सून सान इलाके में पढ़ता है , चोर लुटेरे भी उस रास्ते पर मिलते है और रास्ता भी सही नहीं है इस वजह से यात्रा के कुछ साथी खास तौर पर महिला साथी डर गए थे वे जाने के लिए मना करने लगे जिससे हमारे बीच काफी बहस का माहौल बन गया था क़यासे लगायी जाने लगी अगर कुछ हो गया तो उसका जिम्मेदार कौन होगा इसलिए सबसे बेहतर कि हम यही रुक जाए और दिन में चलने का प्लान बनाते है पर शास्त्री जी अपने दृढ निश्चय पर अडिग रहे उन्होने कहा कि हम तो जायेंगे चाहे कोई जाए या न जाए अंततः यह तय हुआ कि सभी जायेंगे । और हम चल दिए , रास्ता सच में सूनसान और बहुत ही उबड़ खाबड़ वाला था , अँधेरा होने की वजह से दूर दूर तक कोई नजर नहीं आ रहा था और हमें सही रास्ता भी नहीं मालूम था इसके बावजूद हम आगे बढे जा रहे थे संयोग से कोई व्यक्ति दिख जाता तो हम उसके बताये रास्ते पर चल देते पर अँधेरा होने की वजह से सही रास्ते का पता नहीं चल पा रहा था हम भटकते जा रहे है थे इससे उन साथियो की बातो को मिल रहा था जो जाने के विरोध में थे और उन पर डर और जयादा हावी होने लगता उनके अनुसार रास्ता सही नहीं है हमे वापस लौट चलना चाहिए , कोई मुसीबत में फस गए तो क्या होगा । इस सून सान इलाके में कोई मदद करने वाला भी नहीं मिलेगा रास्ता ठीक नहीं लग रहा है पर हम आगे बढ़ते चले जा रहे थे कई बार हमें गाडी को वापस इधर - उधर मोड़ना पड़ा। सही रास्ता न मालूम होने की वजह से 20 मिनट के रास्ते के लिए हम 1 घंटे से अधिक समय खर्च कर चुके थे और अभी हम सही जगह नहीं पहुंचे थे मन में डर हो तो शायद मुसीबते भी पीछे लग जाती है अभी हमे सही रास्ते का इन्तजार था और हमारी गाडी एक सूखी मगर दलदली नदी में फस गयी रात के 8 : 30 बजे थे घनघोर अँधेरा , सून - सान जगह और बीच नदी में दो गाड़िया फसी थी । सब के हाथ पव फूल रहे थे कि अब क्या होगा कैसे निकलंगे यहाँ से तभी अचानक टार्च की रौशनी आती हुयी दिखायी दी, महिला साथियो के मुंह से निकला 'हाय' और हम चार कदम पीछे हो गए । नजदीक आने पर चार-पांच लड़के आते दिखायी दिए उनकी उम्र 15-16 के बीच होगी वे पास के गांव के थे उन्हें शायद मालूम हो गया था कि हमारी गाडी दलदली बालू में फस गयी है संयोग देखिये ये लड़के सुंदरपुर गांव के ही थे और हम सुंदरपुर गांव से मात्र आधा कि मी की दूरी थे लड़को ने दलदल से गाड़ी निकालने का प्रयास शुरू कर दिया काफी जोर अजमाइस करने के बाद एक गाडी गयी पर दूसरी गाडी नहीं निकल पायी शायद दूसरी वाली गाडी ज्यादा फस गयी थी जिसे निकलने लिए अधिक लोगो की आवश्यकता थी गाँव फोन किया गया और लोगो को बुलाया गया और देखते देखते 15 - 20 लड़के इकठ्ठे हो गए अब तो जोश सा गया था सबने नारा लगाया जोर लगाके हईसा अब तो लग रहा था कि हमारी गाड़ी एक बार में ही निकल जायेगी पर ऐसा नहीं था, चार पांच बार प्रयास करने के बाद भी गाड़ी निकल नहीं पा रही थी ऐसा लग रहा था कि बालू ने गाड़ी को नहीं बल्कि गाड़ी ने बालू को पकड़ रखा था और वो हमारे धैर्य और साहस की परीक्षा लेना चाहती थी हर बार पूरी ताकत के साथ प्रयास किया जाता पर सारी मेहनत बेकार जाती । आखिर कर टेक्टर बुलाया गया उसमे फसा कर गाड़ी को खींचा गया तब जाके गाड़ी बाहर निकली और सब मे ख़ुशी की लहर दौड़ गयी ऐसा लग रहा था जैसे हमने युद्ध का मैदान जीत लिया हो । सच भी यह वाकया किसी जंग से कम नहीं था। ग्रामीण संस्कृति का इससे अच्छा उदहारण क्या मिलेगा। दिसम्बर की ठण्ड में, रात्रि 10 बजे खुले आसमान के नीचे हमारी मदद के लिए पूरा गांव इकठ्ठा हो गया था। बड़ी सरलता से लड़के गाड़ी निकलने के लिए इकठ्ठा हो गए थे । लड़को का हमने बहुत बहुत धन्यवाद कहा और गांव के लिए चल दिए ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें